दशहरे में भगवान राम के विजयोत्सव के साथ रावण के पुतला दहन की परंपरा चली आ रही है। युद्ध में मारे गए किसी योद्धा को एक कर्मकांड की तरह बार-बार जलाकर मारना मनुष्यता के विपरीत कर्म है। इसपर पुनर्विचार की आवश्यकता कभी किसी ने महसूस नहीं की। बेशक रावण का अपराध गंभीर था। उसके द्वारा देवी सीता के अपहरण को इसीलिए न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता कि उसने ऐसा अपनी बहन शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से किया था। शूर्पणखा का अपमान सीता ने नहीं किया था। यह अपमान राम और लक्ष्मण ने किया था। बदला भी उन्हीं से लिया जाना चाहिए था। अपने पक्ष की किसी स्त्री के अपमान का प्रतिशोध शत्रुपक्ष की स्त्री का अपमान करके लेना स्त्री को पुरुष की वस्तु या संपति समझने की पुरुषवादी मानसिकता की उपज है। रावण ने अक्षम्य अपराध किया था लेकिन इस अपराध के बीच रावण के चरित्र का एक उजला पक्ष भी सामने आया था। उसने बहन की नाक के एवज में सीता की नाक काटने का प्रयास नहीं किया।
सीता के साथ उसका आचरण मर्यादित रहा था। स्वयं ‘रामायण’ के रचयिता महर्षि बाल्मीकि ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है – राम के वियोग में व्यथित सीता से रावण ने कहा कि यदि आप मेरे प्रति काम-भाव नहीं रखती हैं तो मैं भी आपका स्पर्श नहीं कर सकता।
विजयादशमी का दिन राम के हाथों रावण की पराजय और मृत्यु का दिन है। हमारी संस्कृति में किसी युद्ध में एक योद्धा के लिए विजय और पराजय से ज्यादा बड़ी बात उसका पराक्रम माना जाता रहा है। रावण अपने जीवन के अंतिम युद्ध में एक योद्धा की तरह ही लड़ा था। राम ने उसे मारकर उसे उसके अपराध का दंड दिया। बात वहीं समाप्त हो जानी चाहिए थी। राम ज्ञानी थे। रावण के अहंकार और अपराध के बावजूद उसकी विद्वता और ज्ञान का सम्मान करते थे।
उसकी मृत्यु पर दुखी भी हुए थे। उसके मरने से पहले उन्होँने ज्ञान की याचना के लिए अपने भ्राता लक्ष्मण को उसके पास भेजा था। इसका अर्थ यह है कि स्वय राम ने मान लिया था कि रावण को उसके किए अपराध का दंड मिल चुका है। अब उससे शत्रुता का कोई अर्थ नहीं। फिर हम कौन हैं जो सहस्त्रों सालों से उसे निरंतर जलाए जा रहे हैं ? हमारी संस्कृति में तो युद्ध में लड़कर जीतने वालों का ही नहीं, युद्ध में लड़कर मृत्यु को अंगीकार करने वाले योद्धाओं को भी सम्मान देने की परंपरा रही है।
वैसे भी देश-दुनिया के लंबे इतिहास में रावण अकेला अपराधी नहीं था। उससे भी बड़े- बड़े अभिमानी, दुराचारी और हत्यारे हमारे देश में हुए हैं। उनके पुतले कभी नहीं जलाए गए। युद्ध में मारे गए किसी भी योद्धा को बार-बार मारना और उसकी मृत्यु का उत्सव मनाना हर युग और हर संस्कृति में अस्वीकार्य है। लेखक- ध्रुव गुप्त – आईपीएस अधिकारी एवं साहित्यकार
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