भारतीय राजनीति के जनवादी परिदृश्य में यदि किसी एक नाम ने व्यवस्था से टकराकर, सत्ता के गलियारों में आम जन की आवाज को बुलंद किया है, तो वह नाम है – लालू प्रसाद यादव। एक ऐसा नेता, जिसने न कभी डर को स्थान दिया, न सत्ता के आगे झुका। बिहार की धरती से उठकर राष्ट्रीय राजनीति पर छा जाने वाले लालू यादव आज भी संघर्ष, हिम्मत और हाशिए के समाज की उम्मीद का प्रतीक हैं। 2025 के विधानसभा चुनाव के दौर में जब देश भर में सामाजिक न्याय बनाम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बहस फिर जोर पकड़ रही है, तब लालू यादव के जीवन की साहसिक राजनीतिक यात्राएं और उनकी विरासत प्रासंगिक हो उठती हैं।

- छात्र राजनीति से लेकर मुख्यमंत्री बनने तक का साहसिक सफर
लालू यादव का राजनीतिक जीवन जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से शुरू हुआ। जेपी आंदोलन के सबसे जीवंत चेहरों में शामिल लालू ने 1977 में मात्र 29 वर्ष की उम्र में लोकसभा पहुंचकर देश के सबसे युवा सांसद बनने का गौरव प्राप्त किया। वह समय था जब सत्ता के विरुद्ध बोलना साहस का काम था, और लालू इस राह पर डट गए।
1990 में जब वे बिहार के मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने सामाजिक न्याय की नई राजनीति को दिशा दी। मंडल आयोग की सिफारिशों को जब देश में भारी विरोध के बीच लागू किया गया, तब लालू ने बिना डरे ओबीसी आरक्षण का समर्थन किया। यह फैसला उनकी राजनीति को साधारण से असाधारण की ओर ले गया।
- मंडल बनाम कमंडल की राजनीति में लड़ा अकेला योद्धा
1990 का दौर भारत में सामाजिक न्याय की राजनीति और हिंदुत्ववादी उभार के टकराव का समय था। बाबरी मस्जिद विवाद अपने चरम पर था। ऐसी स्थिति में जब लालकृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली, तो लालू यादव ने उसे बिहार में रोका और गिरफ्तार किया। यह वह क्षण था जिसने लालू को ‘धर्मनिरपेक्षता के रक्षक’ और सामाजिक न्याय के प्रतीक नेता के रूप में स्थापित कर दिया।
उनका यह कदम न केवल साहसिक था, बल्कि यह भविष्य में राजनीति की दिशा तय करने वाला बन गया। उन्होंने दिखाया कि एक क्षेत्रीय नेता भी सांप्रदायिकता के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर आवाज बुलंद कर सकता है।
- चारा घोटाला और जेल के बाद भी राजनीतिक प्रभाव कायम
राजनीतिक जीवन में आरोप लगना आम बात है, लेकिन लालू प्रसाद यादव का नाम जब चारा घोटाले में आया और उन्हें जेल जाना पड़ा, तब यह लगा कि उनकी राजनीति खत्म हो जाएगी। लेकिन यहीं लालू ने एक बार फिर दिखा दिया कि संघर्ष ही उनका असली परिचय है।
उन्होंने जेल से बाहर आकर पार्टी की बागडोर तेजस्वी यादव को दी और आज वह परिवार नहीं, बल्कि विचारधारा के उत्तराधिकारी के रूप में सामने आए हैं। चारा घोटाले के बाद भी उनका जनाधार डिगा नहीं, बल्कि गरीब, पिछड़े, दलित, मुस्लिम वर्ग में उनकी छवि और मजबूत हुई।
- 2025 के विधानसभा चुनाव और लालू यादव की विरासत
विधानसभा चुनाव 2025 में लालू यादव की भूमिका भले ही शारीरिक रूप से सीमित हो, परंतु विचार और रणनीति के स्तर पर वे अब भी ‘किंगमेकर’ हैं। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद जिस सामाजिक गठबंधन पर काम कर रहा है, उसकी बुनियाद लालू ने ही डाली थी।
महंगाई, बेरोजगारी, आरक्षण का सवाल, जातीय जनगणना और धर्मनिरपेक्षता जैसे मुद्दों पर विपक्षी दलों को एकजुट करने में लालू की रणनीति झलकती है। उनका पुराना नारा – “भूरा बाल साफ करो” (ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, लाला के खिलाफ सामाजिक न्याय की मुहिम) – आज फिर से नए रूप में ‘सबको भागीदारी, सबकी हिस्सेदारी’ में तब्दील हो चुका है।
- नतीजा – लालू एक व्यक्ति नहीं, एक विचार हैं
लालू यादव सिर्फ एक नेता नहीं, एक विचारधारा हैं – जो समाज के उस वर्ग के लिए लड़ती है जिसे सदियों तक दबाया गया। वे भारतीय लोकतंत्र के उन नेताओं में हैं, जिनकी राजनीतिक ताकत का स्रोत जनसंघर्ष और सड़क से सत्ता तक की ईमानदार यात्रा रही है।
आज जब 2025 के चुनावों में फिर से ओबीसी, दलित, अल्पसंख्यक और गरीबों की राजनीति चर्चा में है, तब लालू की विरासत एक बार फिर नई पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन बन सकती है।
राजनीति में जहां आज अवसरवादिता और पाला बदल आम हो चुका है, वहां लालू यादव की ‘ना डरा, ना झुका’ वाली राजनीति एक मिसाल है। 2025 का चुनाव भले तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, पर उसकी आत्मा अब भी लालू प्रसाद यादव के विचारों में बसती है।
जो संघर्ष से नहीं डरता, वही असली नेता होता है – और लालू यादव उसी श्रेणी के नेता हैं। लेखक-क़मरुद्दीन सिद्दीक़ी (E-mail-unitedindialive5@rediffmail.com












